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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

शक्तियोंको खोलनेका मार्ग


मनुष्यका यह स्वभाव है कि दूसरे आदमी उसे जैसा पुनः-पुनः कहते हैं, धीरे-धीरे वह स्वयं भी अपने बारेमें वैसा ही विश्वास करने लगता है। उसका गुप्त मन दूसरोंकी बातोंको चुपचाप पकड़ता रहता है और अन्ततः वह उन्हींके अनुसार ढल जाता है।

चाहे हम ऊपरसे दूसरोंकी बातोंसे मन फेर लें; किंतु दूसरोंकी बातचीत और टीका-टिप्पणीका गुप्त प्रभाव हमारे ऊपर बहुत जल्द पड़ता है। किसीको आप जैसा कहते रहें, वह धीरो-धीरे वैसा ही होकर रहता है। हमारी यह आन्तरिक कामना रहती है कि दूसरे व्यक्ति हमें अच्छा कहें, हमारे गुणोंकी प्रशंसा करें, हमारी महत्ता स्वीकार करें और तभी हमें अपने अच्छे मनपर विश्वास भी होता है, जब लोग हमें अच्छा कहते हैं। हम चाहे वास्तवमें लाख अच्छे ही हों; पर यदि हमें अपने अच्छेपनका सबूत दूसरोंके शब्दोंद्वारा नहीं मिलता, तो हमारे गुप्त मनपर गहरा आघात पहुँचता है। हमारे अच्छेपनके गुण क्षीण होने लगते हैं। कभी-कभी तो हमारा मन विद्रोह कर उठता है और हम दुर्गुणीतक बन जाते हैं। कहा जाता है कि रावण एक विद्वान् सद्रुणी ब्राह्मण था। पर जब संसारने उसके सद्रुणोंको स्वीकार कर प्रोत्साहन न दिया तो उसका व्यक्तित्व विद्रोही बन गया। उसके सद्रुण विलुप्त हो गये और असुरत्व विकसित हो उठा। यदि उसके दिव्य गुणोंको पर्याप्त प्रोत्साहन लगातार मिलता रहता तो वह भी भारतका कोई ऋषि बनता। जन्मसे ब्राह्मण, अनेक वेदोंका पण्डित, ज्ञानी, विचारक एक असुर बन गया। यह है गलत दिशामें प्रोत्साहन देनेका दुष्परिणाम।

श्रीश्रीप्रकाशजीने एक बार श्रीमती ऐनी बेसेन्टसे पूछा था कि 'हम भारतीयोंमें क्या दोष है कि हम उन्नति नहीं कर पाते। हमें सफलता नहीं होती और हम तथा हमारे कार्यकर्ता हारकर बैठ जाते है?'

श्रीमती ऐनी बेसेन्ट शिष्टाचारकी मूर्ति थीं। वे किसीके हृदयको कष्ट देना नहीं चाहती थीं। बड़े-बड़े संघर्षोंके समय भी सौम्य संयत भाषाका ही प्रयोग करती थीं। व्यक्तिगत स्नेह बनाये रखनेकी कलामें भी अपूर्व रीतिसे प्रवीण थीं। उनके सार्वजनिक विरोधमें भी इसी कारण कोई कर्कशता कभी नहीं आती थी। वे उत्तर देनेमें संकोच कर रही थीं। श्रीश्रीप्रकाशजीने बार-बार आग्रह किया, तो उनका उत्तर वास्तवमें नई रोशनी देनेवाला था। थोड़े-से शब्दोंमें उन्होंने बहुत बड़े अनुसंधानका परिणाम बतलाया था।

उन्होंने केवल इतना ही कहा था, 'तुमलोगोंमें उदारता नहीं है।' (यू आर नाट ए जेनरस पीपुल)।

उदार नहीं हैं? हिंदूजाति तो पशु, कीट, पतंगतककी हत्या नहीं करती, अहिंसाका सदा पालन करती है। फिर हम कैसे, क्योंकर उदार नहीं हैं?

प्रश्रका उत्तर श्रीश्रीप्रकाशजीके शब्दोंमें सुनिये, 'यकायक सुननेमें यह अनुदारताकी बात हिंदूजातिके लिये बहुत कड़वी मालूम पड़ती है। हम भारतीयोंका विशेषकर हिदुओंका यही विचार है कि हम बड़े दानी, उदार, सहनशील, सर्वलोकहितैषी हैं। हमारे मठ, मन्दिर, अन्न-क्षेत्र, सदाव्रत, धर्मशाला इत्यादि हमारी दानशीलता और उदारवृत्तिके सहस्त्रों वर्षोंसे सूचक रहे हैं। हम भारतीयोंसे बढ़कर कौन उदार हो सकता है?'

श्रीमती ऐनी बेसेन्टको भी, यह कहते हुए, इस कड़वी दवाकी छोटी-सी घूँट पिलाते हुए अवश्य कष्ट हुआ। वे तो सदासे ही भारतीयोंकी प्रशंसक थीं। वे तो हमारी कुरीतियोंकी भी जैसे समर्थक मालूम पड़ती थीं। लेकिन जिस त्रुटिकी ओर उन्होंने हमारा ध्यान आकृष्ट किया था, वह गुण-ग्राहकताका अभाव था। दूसरोंको प्रोत्साहन देनेमें उदारताकी कमी थी।

वास्तवमें प्रोत्साहनका अभाव हमारे राष्ट्रीय जीवनकी एक बड़ी कमजोरी बन गयी है। हम दूसरेके प्रति दो-चार अच्छे या मीठे शब्द कहनेके बजाय उसे तुच्छताका भ्रम कराना ही पसंद करते हैं। बहुत-से माता-पिता, शिक्षक इत्यादिमें यह खोटी आदत होती है कि बच्चोंकी जरा-सी भूलोंपर अथवा शीघ्र पाठ न समझ सकनेपर चिढ़कर कटु बचनोंका उच्चारण करने लगते हैं। 'तुमसे कुछ न होगा। तुम्हारे दिमागमें भूसा भरा हुआ है। तुमसे जीवनमें कुछ न होगा।' इन संकेतोंका ऐसा कुप्रभाव पड़ता है कि कोमल शिशु अपनी महानताको नहीं पहचान पाता। बालक वैसे ही भावुक होता है। जरा-सी मानसिक ठेससे उसमें तुच्छताकी हानिकर भावना जड़ पकड़ जाती है और उसकी बाढ़ हमेशाके लिये रुक जाती है। आप गम्भीरतासे देखें तो आपको अनेक ऐसे डरे-दुबके भीरु प्रकृतिके अधपनपे बच्चे मिल जायँगे जो इस तुच्छताकी ग्रन्थिसे परेशान अपनी महानता न खोज सके हैं, न पनपा ही सके हैं।

एच० जी० वेल्स नामक अंग्रेजीके एक प्रख्यात लेखक हो गये हैं। बचपनसे ही उन्होंने थोड़ा-थोड़ा लिखना शुरू कर दिया था। वे अपने अपरिपक्व विचारोंसे युक्त लेख पत्र-पत्रिकाओंमें छपनेके लिये भेजा करते थे। बहुत-से-नयी उम्रके लड़के इस प्रकार कलम चलाया करते हैं। एक बार अंग्रेजीके एक बड़े सम्पादकके हाथमें युवक एच० जी० वेल्सका एक लेख आया। उसे पढ़नेपर उन्हें इस नये लेखकमें गहराई और वजन मालूम हुआ। उन्होंने उसके लेखको सुधारकर छापा। वेल्सको प्रोत्साहन मिला। सम्पादकने उनसे और लेख माँगा। उन्होंने उसे खुश करनेके लिये और भी श्रम लगाकर एक नया लेख लिखा, वह भी छपा। इसी प्रोत्साहनको पाकर एच० जी० वेल्स अंगेजीके अमर लेखक बन गये। कल्पना कीजिये कि यदि यह प्रोत्साहन न मिलता तो वह अन्य लेखकोंकी तरह विस्मृतिके गर्भमें विलीन हो जाते। उचित प्रोत्साहनके अभावमें सैकड़ों कवियोंकी इच्छा, अभिलाषाएँ तथा महत्त्वाकांक्षाएँ सूखकर नष्ट हो जाती हैं।

यदि आप कहें कि ताड़ना या कठोर वचन कहकर डरानेसे लोग सुधरते है, तो यह ठीक नहीं है। डराने- धमकानेसे और कुछ भले ही हो जाय, सुधार नहीं होता। दोषीके मनमें आपके प्रति घृणाकी भावना उत्पन्न हो जाती है। विषभरे वाक्य आदमी कभी नहीं भूल पाता। व्यंग्य-बाण हृदयमें बिंधे रहते हैं। इसलिये जिसका सुधार करना हो, उसके सद्गुणोंको सही दिशामें प्रोत्साहित कर उसकी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्तियोंका मार्ग खोलिये।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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